2018, Vol. 3 Issue 2, Part A
Abstract: भारतीय वैदिक सनातन परम्परानुसार संस्कारों में विद्याध्ययन के पश्चात् प्रमुख रूप से ‘विवाह‘ संस्कार आता है, जिसे ‘पाणिग्रहण संस्कार‘ भी कहते हैं। गृहस्थ आश्रम में प्रवेश का मार्ग इसी संस्कार से आरम्भ होता है। माता-पिता के पश्चात व्यक्ति का निकटतम सम्बन्ध पत्नी के साथ रहता है। इस सम्बन्ध का प्रभाव केवल मनुष्यों के जीवन तक नहीं अपितु उसके वंश की आगामी कई पीढ़ियों तक चलता है, क्योंकि सन्तान परम्परा में पूर्वजों के गुण-दोष किसी न किसी रूप में विद्यमान रहते हैं।
समावर्तन सस्कार के अनन्तर पुरूष के विवाह के लिए अवश्य प्रयत्न करना चाहिए। वैदिक नित्यकर्म, बिना पत्नी के नहीं हो सकते। अतः जीवन का साथी, पुरूष की सहचारिणी स्त्री एवं स्त्री का सहचारी पुरूष दोनों स्त्री पुरूषों के सम्मिश्रण ऐहिक और परलौकिक (अदृष्ट ) अभ्युदय के लिए गृहस्थ आश्रम सर्वश्रेष्ठ आश्रम है। गृहस्थाश्रम से ही ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास जैसे उच्च आश्रमों को प्रश्रय मिलता है। पति के अनुकूल शील स्वभाव से युक्त भार्या धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कारण होती है।
समस्त संस्कारों मेें ‘विवाह संस्कार‘ का महत्वपूर्ण स्थान है, अधिकांश गृह्यसूत्रों का आरम्भ विवाह संस्कार से होता है। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में वैवाहिक विधि-विधानों की काव्यात्मक अभिव्यक्ति मिलती है, उपनिषदों के युग में आश्रम चतुष्टय का सिद्धान्त पूरी तरह से प्रतिष्ठित हो चुका था, जिनमें गृहस्थाश्रम को सर्वाधिक महत्व दिया गया था। आज भी गृहस्थाश्रम का महत्व उसी प्रकार है। गृहस्थाश्रम की आधारशिला ‘विवाह संस्कार‘ ही है, क्योंकि इसी संस्कार के अवसर पर वर-वधू अपने नवीन जीवन के महान उत्तरदायित्व का निर्वहन करने की प्रतिज्ञा करते है।