2019, Vol. 4 Issue 2, Part A
सिद्धान्त ज्योतिष : परिचय एवं महत्त्व
Author(s): डॉ. नन्दन कुमार तिवारी
Abstract: ज्योतिषशास्त्र कालविधायक होने के कारण ‘कालशास्त्र’ के नाम से भी जाना जाता है। काल का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसमें समस्त सृष्टि समाहित है। कालविहाय किसी भी सृष्टि की कल्पना असम्भव है। ज्योतिषशास्त्र अथवा कालशास्त्र की विहंगमता को देखते हुए लोकबोधाय प्रवर्त्तकों (ऋषियों) ने उसे विभिन्न स्कन्धों में विभक्त किया। ज्योतिषशास्त्र के प्रमुख तीन भाग या स्कन्ध है–सिद्धान्त, संहिता एवं होरा। अभिलक्षण के आधार पर यदि ज्योतिष शास्त्र का विभाजन किया जाय तो मुख्य रूप से तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रायः ज्योतिषशास्त्रीय अधिकांश आचार्य इस विभाजन से सहमत है। सूक्ष्म अभिलक्षणों की गणना अथवा विवेचन करने पर ज्योतिष का अनेक भागों में विभाजन करना अनिवार्य हो जाता है। किन्तु ये सभी भाग उपरोक्त तीन मुख्य भागों में ही समाहित हो जाते है। उन भागों को अनेक स्थानों में स्कन्ध के नाम से व्यवहार किया गया है।
‘सिद्धान्त’ शब्द का संस्कृत वाङ्मय में अनेक अर्थ प्राप्त होते है। परिस्थितियों के आधार पर इसका अर्थ ग्रहण किया जा सकता है। ज्योतिष एक प्रायोगिक विज्ञान है। अर्थात् इसमें दिक्, देश एवं काल के अथवा समय, स्थान तथा व्यक्ति के अनुसार नियम परिवर्तित होते है। काल साधन के नियम भी परिवर्तन शील है। काल साधन के नियमों के साथ -साथ परिवर्तन के नियमों को स्थिति के अनुसार प्रयुक्त करने का निर्देश सिद्धान्त देता है। अर्थात् सिद्धान्त विभिन्न नियमों का समाहार है और उन नियमों के प्रयोग करने पर प्राप्त होने वाला फल विलक्षणता को धारण करता है। वह फल स्थान दिशा और काल पर आधारित होता है। यदि संक्षेप में कहना है तो काल साधन हेतु प्रयुक्त प्रयोगों का नियामक है सिद्धान्त ज्योतिष। अन्य रूप में, ज्योतिषशास्त्रोक्त काल की सूक्ष्मतम इकाई ‘त्रुटि’ से लेकर प्रलयान्त पर्यन्त की गयी काल गणना जिस स्कन्ध के अन्तर्गत किया जाता है, उसका नाम है – सिद्धान्त ज्योतिष।
How to cite this article:
डॉ. नन्दन कुमार तिवारी. सिद्धान्त ज्योतिष : परिचय एवं महत्त्व. Int J Jyotish Res 2019;4(2):10-14.